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Budget 2025-26: आयात पर कम निर्भरता बढ़ाएगी घरेलू मैन्युफैक्चरिंग, MSME की समस्याओं का समाधान भी होगा मददगार

Budget 2025-26: आयात पर कम निर्भरता बढ़ाएगी घरेलू मैन्युफैक्चरिंग, MSME की समस्याओं का समाधान भी होगा मददगार


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वर्ष 2024-25 के बजट की नौ प्राथमिकताओं में मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज को चौथे स्थान पर रखा गया था। ईपीएफओ अंशदान में मदद इंटर्नशिप अलाउंस इंडस्ट्रियल पार्क की स्थापना और अनेक वस्तुओं पर कस्टम ड्यूटी में बदलाव की घोषणा की गई थी। इसके बावजूद सरकार का पहला अग्रिम अनुमान बताता है कि चालू वित्त वर्ष में जीवीए में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा घटकर 17.15% रह जाएगा जो पिछले साल 17.33% था।


 जीडीपी के नए आंकड़ों के अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष, 2024-25 के ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 17.15% रहने का अनुमान है। वर्ष 2022-23 को छोड़ दें, तो यह पांच साल में सबसे कम होगा। केंद्र सरकार ने वर्ष 2011 में तय किया था कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी एक दशक में बढ़ाकर 25% की जाएगी। बाद के वर्षों में समय सीमा बढ़ाकर 2025 की गई। इसके लिए मेक इन इंडिया अभियान चलाया गया, प्रोडक्शन लिंक्ड स्कीम (पीएलआई) स्कीम शुरू की गई, विदेशी निवेश के नियम आसान करने के साथ अन्य उपाय भी किए गए। इन उपायों से पिछले एक दशक में देश में मैन्युफैक्चरिंग तो निश्चित रूप से बढ़ी, लेकिन जीडीपी में इसका हिस्सा नहीं बढ़ सका। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के आंकड़ों के अनुसार पिछले एक दशक में जीवीए में मैन्युफैक्चरिंग 16.91% से 18.45% के बीच रही है।

वर्ष 2024-25 के बजट की नौ प्राथमिकताओं में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज को चौथे स्थान पर रखा था। मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए ईपीएफओ अंशदान में मदद, इंटर्नशिप अलाउंस, इंडस्ट्रियल पार्क की स्थापना और अनेक वस्तुओं पर कस्टम ड्यूटी में बदलाव की घोषणा की गई थी। इसके बावजूद सरकार का पहला अग्रिम अनुमान बताता है कि चालू वित्त वर्ष में जीवीए में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा घटकर 17.15% रह जाएगा, जो पिछले साल 17.33% था।

मैन्युफैक्चरिंग में वैश्विक कंपनियों की चाइना प्लस वन नीति का अभी तक भारत को ज्यादा फायदा नहीं मिला है। अमेरिका की जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक पॉलिसी में विशिष्ट विजिटिंग स्कॉलर अजय छिब्बर बताते हैं, “आईफोन को छोड़कर अभी तक चीन से कोई बड़ा निवेश भारत नहीं आया है। पीएलआई के बावजूद निवेश आकर्षित करना चुनौतीपूर्ण रहा है। इसका कारण नौकरशाही, श्रम और भूमि कानून तथा द्विपक्षीय निवेश समझौतों को लेकर भारत का नजरिया है। इसके अलावा आईफोन और दवा बनाने में जो इंटरमीडिएट गुड्स का इस्तेमाल होता है, उनके लिए भारत काफी हद तक चीन पर निर्भर है। इसलिए अमेरिका-चीन ट्रेड वॉर का बड़ा फायदा भारत को मिलने की संभावना कम है।” छिब्बर अशोका यूनिवर्सिटी के आइजैक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में विशिष्ट फेलो भी हैं। वे मैन्युफैक्चरिंग के लिए मांग बढ़ाने के उपायों को भी जरूरी बताते हैं।

एमएसएमई की कर्ज की समस्या का समाधान जरूरी

एमएसएमई मंत्री जीतन राम मांझी ने बीते वर्ष 29 जुलाई को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि 2022-23 में मैन्युफैक्चरिंग में एमएसएमई का योगदान 35.4% और जीडीपी में 30.1% था। वर्ष 2023-24 में इसने निर्यात में 45.73% का योगदान किया था। मैन्युफैक्चरिंग के लिहाज से महत्वपूर्ण एमएसएमई के लिए पिछले बजट में कई घोषणाएं की गई थीं, लेकिन उद्योग संगठनों की मानें तो इन उपक्रमों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।

सरकार एमएसएमई के उत्पादों की बड़ी खरीदार है। नियम के मुताबिक सभी केंद्रीय विभागों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (PSU) के लिए से कम 25% खरीद लघु और छोटे उपक्रमों से करना जरूरी है। छोटे-मझोले उपक्रमों की फेडरेशन फिस्मे (FISME) के अनुसार सार्वजनिक खर्च पर लगाम से इन उपक्रमों का रेवेन्यू और प्रॉफिट दोनों प्रभावित हुआ। हाल के महीने में रिकॉर्ड आयात से घरेलू मैन्युफैक्चरिंग प्रभावित हुई है। युद्ध और आपदाओं के कारण ग्लोबल सप्लाई चेन पर असर पड़ने से भी एमएसएमई को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बड़ी संख्या में एमएसएमई स्पेशल मेंशन अकाउंट (SMA) फ्रेमवर्क के दायरे में आए और बंदी के कगार पर पहुंच गए।

फिस्मे के सेक्रेटरी जनरल अनिल भारद्वाज के अनुसार, “हमारे पास ऐसी शिकायतें आई हैं कि एसएमए फ्रेमवर्क ने एमएसएमई की मदद करने के बजाय उनकी मुश्किलें बढ़ाई हैं। पिछले बजट के बाद रिजर्व बैंक ने एमएसएमई संगठनों के साथ बैठक की थी, लेकिन उसका भी कोई खास नतीजा नहीं निकला है।”

समस्या यह है कि एसएमए फ्रेमवर्क कंप्यूटर चालित है और समय पर किस्त न लौटाने पर यह अपने आप शुरू हो जाता है। इसमें कर्ज लौटाने में गुणात्मक कारणों पर विचार का कोई विकल्प नहीं है। एक बार किसी इकाई का अकाउंट स्पेशल मेंशन हुआ तो बैंक उससे दूरी बना लेते हैं। बैंकिंग ऑपरेशन बंद हो जाने के कारण इकाई बंदी के कगार पर पहुंच जाती है। इस फ्रेमवर्क में आने के बाद इकाई के रिवाइवल के लिए बैंक मैनेजर क्या करे, इस पर कोई दिशानिर्देश नहीं है। इस तरह वह अकाउंट एनपीए बन जाता है और बैंक एसेट रिकवरी की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। फिस्मे के मुताबिक एमएसएमई के सभी कर्ज के एवज में एसेट गिरवी होता है, इसलिए बैंकों के लिए भी उन एसेट को बेचकर रिकवरी करना आसान होता है।

भारद्वाज के अनुसार, इस पर तत्काल विचार करने की जरूरत है। सबसे पहले एसएमए फ्रेमवर्क के असर के आकलन के लिए डेटा जुटाया जाना चाहिए। यह देखना चाहिए कि कितने अकाउंट एसएमए 0, 1 या 2 कैटेगरी में डाले गए और उसके बाद उन इकाइयों का क्या हुआ। इस फ्रेमवर्क को सिर्फ स्ट्रेस वाली इकाइयों की पहचान करने और उनके साथ बैंकिंग ऑपरेशन बंद करने तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि उनके रिवाइवल के भी प्रयास होने चाहिए।

पीएचडी चैंबर का कहना है कि अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले एमएसएमई के लिए एनपीए के नियम आसान करने के साथ कर्ज की रिस्ट्रक्चरिंग भी की जानी चाहिए। अभी 90 दिनों तक किस्त न चुकाने पर कर्ज को एनपीए घोषित कर दिया जाता है। चैंबर का सुझाव इसे 180 दिन करने का है।

फिस्मे का अनुसार एमएसएमई के लिए थर्ड पार्टी रेटिंग भी बड़ी बाधा है। पिछले बजट में कहा गया था कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक क्रेडिट असेसमेंट के लिए अपना मॉडल तैयार करेंगे। लेकिन रिजर्व बैंक के गाइडलाइन के अभाव में पुरानी व्यवस्था ही जारी है। फेडरेशन की मांग है कि रिजर्व बैंक को विशेष दिशानिर्देश जारी करना चाहिए कि एमएसएमई और अनलिस्टेड कंपनियों के लिए यह रेटिंग अनिवार्य न हो।

वस्तु निर्यात, जिसमें एमएसएमई का हिस्सा लगभग 50% है, को वैश्विक बाजार में कड़ी चुनौतियां झेलनी पड़ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार से रॉ मैटेरियल और अन्य इनपुट खरीदने के लिए कर्ज की जरूरत पड़ती है। अभी एग्जिम बैंक किसी इकाई की तभी मदद करता है जब उसका निर्यात उसकी कुल बिक्री के 10% से अधिक हो। फिस्मे के अनुसार एलसी आधारित ऑर्डर के लिए एक्जिम बैंक को कर्ज देना अनिवार्य किया जाना चाहिए।

इलेक्ट्रॉनिक इंडस्ट्रीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (Elcina) के सेक्रेटरी जनरल राजू गोयल का कहना है कि अंतर्राष्ट्रीय मानक के सर्टिफिकेशन और टेस्टिंग के लिए एमएसएमई को काफी खर्च करना पड़ता है। इससे उनकी लागत बढ़ती है। सरकार को इसके लिए फाइनेंशियल इन्सेंटिव देने पर विचार करना चाहिए अथवा एमएसएमई के लिए सस्ती टेस्टिंग और सर्टिफिकेशन सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए। छोटे-मझोले उपक्रमों के सामने उत्पादन बढ़ाने के लिए सस्ती फाइनेंसिंग चुनौती है। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर फीस की फाइनेंसिंग के लिए एक टेक्नोलॉजी एक्विजिशन फंड बनाया जा सकता है।
टैरिफ-नॉन टैरिफ बैरियर के नुकसान

एमएसएमई को क्वालिटी कंट्रोल जैसे नॉन टैरिफ बैरियर के साथ टैरिफ बैरियर का भी सामना करना पड़ता है। खासकर स्टील, कॉपर, एल्यूमिनियम और पॉलीमर जैसे कच्चे माल के लिए। घरेलू उत्पादकों के संरक्षण के लिए अपनाए गए इन उपायों के कई नुकसान भी हैं। फिस्मे के भारद्वाज का कहना है कि इनपुट महंगा होने से एमएसएमई के लिए उत्पादन लागत बढ़ जाती है और प्रतिस्पर्धा की क्षमता कम होती है। संरक्षणवादी तरीकों से घरेलू निर्माताओं को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से तो राहत मिल सकती है, लेकिन इससे इनोवेशन बाधित होता है और उत्पादकता बढ़ाने के प्रयासों को धक्का लगता है। इसलिए खासतौर से कच्चे माल पर नया टैरिफ या नॉन-टैरिफ बैरियर लगाने से पहले उसके संभावित असर पर आईआईएम अथवा आईआईएफटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से अध्ययन कराया जाना चाहिए। अंतिम निर्णय लेने से पहले एमएसएमई और यूजर इंडस्ट्री की राय भी ली जानी चाहिए।

पीएचडी चैंबर का एक और महत्वपूर्ण सुझाव प्री और पोस्ट शिपमेंट एक्सपोर्ट क्रेडिट पर इंटरेस्ट इक्विलाइजेशन सुविधा देने का है। इस स्कीम में एमएसएमई मैन्युफैक्चर और मर्चेंट निर्यातकों को ब्याज में छूट मिलती है। चैंबर का सुझाव एमएसएमई सर्विस निर्यातकों को भी इसमें शामिल करने का है। अभी लघु और छोटे उद्योगों के लिए एमएसई फैसिलिटेशन काउंसिल है। चैंबर का कहना है कि मझोले उपक्रमों को भी इसमें शामिल करने की जरूरत है। इससे इन उपक्रमों को देर से भुगतान की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी।


मोबाइल के अलावा अन्य इलेक्ट्रॉनिक्स पर भी देना होगा ध्यान

हाल के वर्षों में भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग काफी बढ़ी है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2014 में देश में 2.4 लाख करोड़ रुपये का इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन होता था, जो 2024 में 9.8 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया। इसमें मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग 4.4 लाख करोड़ की है। इसमें से 1.5 लाख करोड़ के मोबाइल फोन का निर्यात किया गया। देश में बिकने वाले 98% मोबाइल फोन यहीं बनते हैं।

हालांकि मोबाइल फोन के मामले में अब भी बहुत गुंजाइश है। इंडिया सेलुलर एंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन (ICEA) के अनुसार, मोबाइल फोन की सब-असेंबली और उसके कंपोनेंट पर टैरिफ से इनकी लागत बढ़ती है, जिसका असर मोबाइल फोन की कीमत पर पड़ता है। प्रिंटेड सर्किट बोर्ड असेंबली (PCBA) के पार्ट, कनेक्टर और कैमरा मॉड्यूल आदि पर 2.5% टैरिफ है। इतने टैरिफ से घरेलू इंडस्ट्री को संरक्षण तो नहीं मिलता लेकिन निर्माता के लिए यह बोझ जरूर बन जाता है। इसे पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए।

फ्लेक्सिबल प्रिंटेड सर्किट असेंबली (FPCA) पर भी आयात शुल्क 10% करने की जरूरत है। मोबाइल फोन के बिल ऑफ मटेरियल में लगभग 1% हिस्सा माइक और रिसीवर का होता है। अन्य सब-असेंबली की तरह इन पर भी ड्यूटी 15% से घटकर 10% की जाए तो घरेलू इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग इकोसिस्टम मजबूत होगा और इसकी प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ेगी। इंडक्टर कॉयल पर 10% ड्यूटी है जबकि इसके पार्ट्स और सब-पार्ट्स पर 15% ड्यूटी है। एसोसिएशन की मांग है कि इस इनवर्टेड ढांचे को खत्म करने के लिए इंडक्टर कॉयल के सभी इनपुट पर ड्यूटी शून्य की जानी चाहिए।

PCBA को इलेक्ट्रॉनिक्स के तहत प्रमुख क्षेत्र के रूप में पहचाना गया है। इसका उद्देश्य 2030 तक आयात कम करना और कंपोनेंट तथा वैल्यू एडेड PCBA की देश में मैन्युफैक्चरिंग का रोडमैप तैयार करना है। उद्योग चैंबर फिक्की का कहना है कि PCBA के विभिन्न प्रयोगों के आधार पर टैरिफ और एचएस कोड का निर्धारण करना जरूरी है। सरकार को PCBA पर कस्टम ड्यूटी और इसके अंतिम उत्पाद के बीच 25% का अंतर रखना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि तैयार इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद पर कस्टम ड्यूटी 20% है, तो इस उत्पाद के लिए PCBA पर कस्टम ड्यूटी 15% हो सकती है।

29 मई 2023 को लांच पीएलआई 2.0 स्कीम के बाद आईटी हार्डवेयर में भी धीरे-धीरे निवेश बढ़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्रालय के अनुसार पिछले डेढ़ साल में आईटी हार्डवेयर क्षेत्र में 520 करोड़ रुपये का निवेश और 10,000 करोड़ का उत्पादन हुआ तथा 3,900 लोगों को नौकरियां मिली हैं। पीएलआई 2.0 में योग्य कंपनियों को 5% इन्सेंटिव का प्रावधान है। इसमें लैपटॉप के अलावा टैबलेट, पर्सनल कंप्यूटर, सर्वर और छोटे फॉर्म फैक्टर डिवाइस शामिल हैं।



इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 11 जनवरी को चेन्नई में भारतीय कंपनी सिरमा (Syrma) एसजीएस की लैपटॉप असेंबली लाइन का उद्घाटन किया। इस स्कीम के तहत लगने वाली यह पहली इकाई है। शुरू में इसकी क्षमता एक लाख लैपटॉप सालाना की होगी, जिसे दो साल में 10 लाख तक बढ़ाया जाएगा।
टेलीविजन, कार डिस्प्ले, वॉशिंग मशीन के लिए ड्यूटी का ढांचा

ICEA ने ओपन सेल के सभी पार्ट्स पर आयात शुल्क शून्य करने की मांग की है। उसका कहना है कि यह इंडस्ट्री कैपिटल इंटेंसिव के साथ टेक्नोलॉजी इंटेंसिव भी है। इन पर 2.5% टैरिफ से मैन्युफैक्चरिंग लागत बढ़ती है और चीन, वियतनाम जैसे देशों की तुलना में प्रतिस्पर्धा की क्षमता कम होती है।

इंटरएक्टिव फ्लैट पैनल डिस्प्ले पर इनवर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर है। बिल ऑफ मटेरियल में इसका हिस्सा 73%, पीसीबी का 20%, स्पीकर का 1% और कनेक्टर का 0.4% होता है। अभी फ्लैट पैनल डिस्प्ले मॉड्यूल पर 15%, पीसीबीए पर 15%, स्पीकर पर 10% और कनेक्टर पर 15% बेसिक कस्टम ड्यूटी है। एसोसिएशन ने पीसीबीए पर ड्यूटी घटाकर 10% और बाकी पर शून्य करने की मांग की है।

अभी कार डिस्प्ले पर 15% ड्यूटी है। डिस्प्ले असेंबली के पार्ट्स पर भी 15% ड्यूटी लगती है। एसोसिएशन का कहना है कि ड्यूटी का यह ढांचा देश में मैन्युफैक्चरिंग में बाधक है। मोबाइल फोन इंडस्ट्री की तरह कार डिस्प्ले के पार्ट्स पर भी आयात शुल्क 15% से घटाकर शून्य करने की जरूरत है।

10 किलो क्षमता तक की वॉशिंग मशीन पर 20% और इससे अधिक क्षमता वाली मशीनों पर 7.5% बेसिक कस्टम ड्यूटी है। वॉशिंग मशीन के पार्ट्स पर भी बेसिक कस्टम ड्यूटी 7.5% से 10% तक है। ICEA का कहना है कि यह 10 किलो से अधिक क्षमता वाली मशीनों की मैन्युफैक्चरिंग में बाधक है। घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए सभी वॉशिंग मशीनों पर एक समान 20% कस्टम ड्यूटी लगाई जानी चाहिए।
इकोसिस्टम के लिए वित्तीय मदद

ICEA का कहना है कि देश में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन 115 अरब डॉलर से बढ़ाकर 500 अरब डॉलर करने और वैल्यू एडिशन को 15-20% से बढ़ाकर 30-35% करने के लिए व्यापक वित्तीय मदद जरूरी है। कंपोनेंट और सब-असेंबली इकोसिस्टम विकसित करने के लिए इसने 40,000 करोड़ रुपये की वित्तीय मदद की मांग की है।

आयकर कानून में 2019 में धारा 115 बीएबी जोड़ी गई थी, जिसमें 1 अक्टूबर 2019 से 31 मार्च 2023 तक स्थापित मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए 15% टैक्स (सेस और सरचार्ज अतिरिक्त) का प्रावधान किया गया था। 2023 के बजट में इस समय सीमा को बढ़ाकर 31 मार्च 2024 किया गया। एसोसिएशन का कहना है कि भू-राजनीतिक तथा अन्य कारणों से इस निर्धारित समय सीमा में अनेक कंपनियां नए संयंत्र स्थापित नहीं कर पाईं। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री के लिए 15% रियायती इनकम टैक्स रेट की मांग की गई है।

एल्सिना ने सेक्शन 115 बीएबी के तहत नई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए 15% कॉरपोरेट टैक्स की समय सीमा 31 मार्च 2029 तक बढ़ाने की मांग की है। इसका कहना है कि इससे एमएसएमई और बड़ी मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों, दोनों में निवेश आकर्षित होगा।
फंडिंग आसान हो, टैक्स में रियायत की मांग

एल्सिना के राजू गोयल ने सरकार की इक्विटी भागीदारी वाला एक वेंचर फंड बनाने की भी सुझाव दिया है ताकि ऊंचे वैल्यू एडिशन वाले कंपोनेंट, पीसीबी और मॉड्यूल की मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिल सके। इसका यह भी कहना है कि निवेश और डिविडेंड दोनों पर पांच साल के लिए टैक्स में रियायत दी जानी चाहिए ताकि निजी इक्विटी और हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल को आकर्षित किया जा सके। इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज समेत मेड इन इंडिया प्रोडक्ट के लिए अभी कोई प्रमोशन स्कीम नहीं है। प्रमोशन के लिए कॉरपोरेट टैक्स में रियायत दी जा सकती है।

गोयल ने प्रोडक्ट और कॉम्पोनेंट आधारित क्लस्टर बनाने का भी सुझाव दिया है, खासकर अधिक ग्रोथ वाले सेगमेंट में। इसने कहा है कि देश में 10 विश्व स्तरीय इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टर स्थापित किए जाने चाहिए, जो प्लग एंड प्ले फैसिलिटी और बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर वाले हों। स्थानीय मदद के लिए राज्य सरकारों को साथ लिया जाना चाहिए।


आरएंडडी पर खर्च के लिए इन्सेंटिव का सुझाव

अभी भारत जीडीपी का सिर्फ 0.7% रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर खर्च करता है, जबकि चीन में यह 2.5% और जापान में 3.1% है। भारतीय कंपनियां भी वैश्विक कंपनियों की तुलना में आरएंडडी पर अपने रेवेन्यू की तुलना में बहुत कम खर्च करती हैं। आरएंडडी पर खर्च बढ़ाने के लिए एल्सिना का सुझाव है कि जो कंपनियां अपने टर्नओवर का 3% से अधिक इस मद में खर्च करेंगी उन्हें जीएसटी में पांच प्रतिशत की छूट दी जाए।

चीन, इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों में पेटेंट बॉक्स व्यवस्था है। इसके तहत पेटेंट और बौद्धिक अधिकारों से होने वाली आय पर कम टैक्स लगता है। भारत में ऐसा कोई इन्सेंटिव नहीं है। इसलिए रिसर्च और डेवलपमेंट में निवेश आकर्षक नहीं है। गोयल के अनुसार भारत में भी पेटेंट बॉक्स व्यवस्था लागू की जा सकती है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी फाइलिंग में भारतीय कंपनियां बहुत पीछे हैं। इसे बढ़ावा देने के लिए भी इन्सेंटिव का सुझाव दिया है।
मेडिकल डिवाइस आयात पर निर्भरता घटाने के उपाय चाहिए

एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री (AiMeD) ने डिवाइस आयातकों पर सवाल उठाए हैं। इसका कहना है कि उपभोक्ता आयातित कीमत का 10 से 30 गुना तक चुका रहे हैं। जीरो ड्यूटी का भी उन्हें कोई फायदा नहीं मिल रहा क्योंकि आयातक एमआरपी वसूल रहे हैं। इसलिए मेडिकल डिवाइस निर्माताओं ने कंसेशनल ड्यूटी नोटिफिकेशन वापस लेने की मांग की है। एसोसिएशन के कोऑर्डिनेटर राजीव नाथ के अनुसार कंसेशनल ड्यूटी के कारण देश में मैन्युफैक्चरिंग मुनाफे का काम नहीं रह गई है। अनेक मैन्युफैक्चरर आयात कर ट्रेडिंग कर रहे हैं।

देश में पिछले तीन साल से 61,000 करोड़ रुपये से अधिक की मेडिकल डिवाइस का आयात हो रहा है। 2023-24 में यह 69,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। राजीव नाथ का कहना है कि भारतीय निर्माता 140 करोड़ लोगों की जरूरतें पूरी करने में सक्षम हैं, लेकिन दुख की बात है कि भारत जरूरत का 70% मेडिकल डिवाइस आयात करता है। घरेलू इंडस्ट्री को संरक्षण दिया जाए तो मोबाइल फोन की तरह यह निर्भरता पूरी तरह मिटाई जा सकती है। अभी मेडिकल डिवाइस पर शून्य से 7.5% ड्यूटी है, इसे 5-15% किया जाना चाहिए और कंपोनेंट पर कम से कम 5% ड्यूटी लगाई जानी चाहिए।

उन्होंने बताया कि आयातकों को जीएसटी का इनपुट क्रेडिट मिलता है, जबकि जीएसटी लागू होने से पहले उन्हें यह सुविधा नहीं थी। फार्मास्यूटिकल विभाग भी कह चुका है कि घरेलू निर्माताओं के लिए 12-15% डिसेबिलिटी फैक्टर है। यह फैक्टर अपर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर, महंगा कर्ज, अपर्याप्त बिजली, सीमित डिजाइन क्षमता, रिसर्च और डेवलपमेंट पर कम फोकस जैसे कारणों से है।

पीएचडी चैंबर के प्रेसिडेंट हेमंत जैन ने विशेष रूप से सीमेंट, एल्युमिनियम, स्टील, पैकेजिंग सामग्री, कागज और पेपरबोर्ड उद्योग जैसे सेक्टर में इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर को पूरी तरह समाप्त करने की जरूरत बताई, क्योंकि इससे घरेलू निर्माताओं की लागत बढ़ती है और वैश्विक बाजार में उनकी प्रतिस्पर्धा की क्षमता कम होती है। उनका कहना है कि इन उपायों से मैन्युफैक्चरिंग को मजबूती मिलेगी। हमें जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का योगदान 2030 तक 25% तक ले जाने का लक्ष्य रखना चाहिए। इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रोडक्टिविटी और प्रतिस्पर्धा की क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ मांग में भी वृद्धि जरूरी है।
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