झीरमकांड की बरसी : 11 साल पहले हुए हमले के निशां मिट गए, पर दर्द बाकी, इलाका अब शांत, पर दिलों में तूफान
झीरमकांड की बरसी : 11 साल पहले हुए हमले के निशां मिट गए, पर दर्द बाकी, इलाका अब शांत, पर दिलों में तूफान
11 सालों में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित झीरम गांव की हालत में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। गरीबी, बदहाली और दयनीय स्थिति में लोग अब भी हैं।
25 मई 2013 की शाम को दरभा ब्लाक के झीरम में नक्सलियों ने जिस तरह खूनी खेल को अंजाम दिया, उसने देश-प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में नक्सल आतंक की इस घटना को आज चर्चित कर दिया। इस घटना में बस्तर टाइगर महेन्द्र कर्मा, पूर्व गृहमंत्री नंदकुमार पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत कांग्रेस के कई कद्दावर नेता मारे गए। नक्सलियों का यह खूनी खेल संभाग मुख्यालय के समीप घटित हुआ जो बस्तर के इतिहास में काला अध्याय साबित हुआ। उस समय प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार। घटना को घटित हुए शनिवार को 11 साल पूरे हो जाएंगे, लेकिन 30 से अधिक राज नेताओं, पुलिस जवानों और आम नागरिकों को हमेशा के लिए मौत के घाट उतारने वाले असली गुनाहगार पकड़ से बाहर हैं। इन 11 सालों में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित झीरम गांव की हालत में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। गरीबी, बदहाली और दयनीय स्थिति में लोग अब भी हैं। अलबत्ता विकास की दिशा में इलाका थोड़ा आगे बढ़ा है। झीरम इलाका सबसे ज्यादा खतरनाक इसलिए माना जाता था, क्योंकि तुलसीडोंगरी पर नक्सलियों का एकछत्र राज था, जहां से वे ओडिशा और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता चलाते थे। नक्सल राज एक तरह से इस इलाके में काफी मजबूत हालत में था। घटना को हुए 11 साल बीत रहे हैं, लेकिन खौफ आज भी कायम है। क्षेत्र में शांति आई है गांव तक चमचमाती पक्की सड़कें बन गई है, सड़क बनने से काफीसारी समस्याएं अपने आप कम हो जाती है। गांव में बिजली, पानी, राशन, स्कूल, आंगनबाड़ी सब ठीक ठाक लोगों के पहुंच में आ जाते हैं।
झीरम घटना के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर घटना स्थल में और उसके आगे सुकमा जिले के पास झीरम-1 और झीरम-2 कैंप खुले हैं। यह कैंप आज भी स्थापित हैं, जहां दिन-रात जवान ड्यूटी बजा रहे हैं। दिन में वही सन्नाटा और रात में गुजरने वालों को 11 साल पहले का खौफ वाला मंजर महसूस होता है। वैसे आज भी समझदार लोग इस मार्ग से गुजरने से बचते हैं, विशेषकर राजनीति से जुड़े लोग। चांदामेटा में कैंप खुलने के बाद ओडिशा से छत्तीसगढ़ आकर वारदात को अंजाम देकर वापस ओड़शिा चले जाने का नक्सलियों का काम बंद हो गया है। कोलेंग और एलंगनार जैसे नक्सल प्रभावित अतिसंवेदनशील गांव तक सड़क बनने से विकास की किरण इन गांवों तथा आसपास के क्षेत्रों में पहुंची है।
शीर्ष जांच एजेंसियों का उपयोग क्यों नहीं
बस्तर विधायक लखेश्वर बघेल ने बताया कि, झीरम घटना में कांग्रेस ने अपने शीर्ष नेताओं को खोया है। दुर्भाग्य की बात है कि 11 साल घटना को हो चुके और अभी भी पूरा सच सामने नहीं आया है। देश में बड़ी-बड़ी जांच एजेंसियां है, उसका उपयोग झीरम कांड की जांच में नहीं होना सोचनीय बात है। बस्तर का हर व्यक्ति चाहता है कि असली गुनाहगार सलाखों के पीछे हो, लेकिन यह नहीं होना दुर्भाग्यजनक है। भूपेश सरकार के समय जांच हुई थी, बावजूद क्या कुछ हुआ यह सामने नहीं आ पाया है। झीरम कांड में बचने वालों में मैं भी शामिल था। मेरे अलावा कई कांग्रेसी बच गए थे, सभी चाहते हैं कि सच सामने आए।
उम्मीद अब भी ...
झीरम घटना में 25 मई 2013 को बस्तर के सबसे कद्दावर नेता महेन्द्र कर्मा सहित छत्तीसगढ़ के कई दिग्गज नेताओं ने जान गंवाई थी। जिन परिवार ने अपनों को खोया है उन्हें आज भी इस बात का मलाल है कि 11 साल में असली गुनाहगार पकड़ से बाहर है। एनआईए और एसआईटी जांच के अलावा स्थानीय पुलिस की जांच में भी क्या कुछ हुआ, इससे लोग अनभिज्ञ हैं। कुल मिलाकर झीरम कांड किसने कराया इसके पीछे किसका हाथ था और बड़े नक्सली लीडर जो इसमें शामिल थे वे क्यों पकड़ में नहीं आए, यह सवाल आज भी जनमानस के जहन में है।
नहीं के बराबर नक्सली मूवमेंट
बस्तर एसपी शलभ सिन्हा ने बताया कि, पिछले दो साल से झीरम इलाके में नक्सली मूवमेंट नहीं के बराबर है। कैंप खुलने और लगातार इस इलाके में फोर्स के सक्रिय रहने से नक्सली घटनाओं में कमी आई है। नक्सल प्रभावित गांव में विकास पहुंचा है इसलिए क्षेत्र में शांति का माहौल है। राष्ट्रीय राजमार्ग समेत दरभा ब्लाक के सभी नक्सल प्रभावित गांव में किसी तरह की नक्सलियों के मूवमेंट की जानकारी नहीं है।
11 सालों में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित झीरम गांव की हालत में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। गरीबी, बदहाली और दयनीय स्थिति में लोग अब भी हैं।
25 मई 2013 की शाम को दरभा ब्लाक के झीरम में नक्सलियों ने जिस तरह खूनी खेल को अंजाम दिया, उसने देश-प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में नक्सल आतंक की इस घटना को आज चर्चित कर दिया। इस घटना में बस्तर टाइगर महेन्द्र कर्मा, पूर्व गृहमंत्री नंदकुमार पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत कांग्रेस के कई कद्दावर नेता मारे गए। नक्सलियों का यह खूनी खेल संभाग मुख्यालय के समीप घटित हुआ जो बस्तर के इतिहास में काला अध्याय साबित हुआ। उस समय प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार। घटना को घटित हुए शनिवार को 11 साल पूरे हो जाएंगे, लेकिन 30 से अधिक राज नेताओं, पुलिस जवानों और आम नागरिकों को हमेशा के लिए मौत के घाट उतारने वाले असली गुनाहगार पकड़ से बाहर हैं। इन 11 सालों में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित झीरम गांव की हालत में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। गरीबी, बदहाली और दयनीय स्थिति में लोग अब भी हैं। अलबत्ता विकास की दिशा में इलाका थोड़ा आगे बढ़ा है। झीरम इलाका सबसे ज्यादा खतरनाक इसलिए माना जाता था, क्योंकि तुलसीडोंगरी पर नक्सलियों का एकछत्र राज था, जहां से वे ओडिशा और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता चलाते थे। नक्सल राज एक तरह से इस इलाके में काफी मजबूत हालत में था। घटना को हुए 11 साल बीत रहे हैं, लेकिन खौफ आज भी कायम है। क्षेत्र में शांति आई है गांव तक चमचमाती पक्की सड़कें बन गई है, सड़क बनने से काफीसारी समस्याएं अपने आप कम हो जाती है। गांव में बिजली, पानी, राशन, स्कूल, आंगनबाड़ी सब ठीक ठाक लोगों के पहुंच में आ जाते हैं।
झीरम घटना के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर घटना स्थल में और उसके आगे सुकमा जिले के पास झीरम-1 और झीरम-2 कैंप खुले हैं। यह कैंप आज भी स्थापित हैं, जहां दिन-रात जवान ड्यूटी बजा रहे हैं। दिन में वही सन्नाटा और रात में गुजरने वालों को 11 साल पहले का खौफ वाला मंजर महसूस होता है। वैसे आज भी समझदार लोग इस मार्ग से गुजरने से बचते हैं, विशेषकर राजनीति से जुड़े लोग। चांदामेटा में कैंप खुलने के बाद ओडिशा से छत्तीसगढ़ आकर वारदात को अंजाम देकर वापस ओड़शिा चले जाने का नक्सलियों का काम बंद हो गया है। कोलेंग और एलंगनार जैसे नक्सल प्रभावित अतिसंवेदनशील गांव तक सड़क बनने से विकास की किरण इन गांवों तथा आसपास के क्षेत्रों में पहुंची है।
शीर्ष जांच एजेंसियों का उपयोग क्यों नहीं
बस्तर विधायक लखेश्वर बघेल ने बताया कि, झीरम घटना में कांग्रेस ने अपने शीर्ष नेताओं को खोया है। दुर्भाग्य की बात है कि 11 साल घटना को हो चुके और अभी भी पूरा सच सामने नहीं आया है। देश में बड़ी-बड़ी जांच एजेंसियां है, उसका उपयोग झीरम कांड की जांच में नहीं होना सोचनीय बात है। बस्तर का हर व्यक्ति चाहता है कि असली गुनाहगार सलाखों के पीछे हो, लेकिन यह नहीं होना दुर्भाग्यजनक है। भूपेश सरकार के समय जांच हुई थी, बावजूद क्या कुछ हुआ यह सामने नहीं आ पाया है। झीरम कांड में बचने वालों में मैं भी शामिल था। मेरे अलावा कई कांग्रेसी बच गए थे, सभी चाहते हैं कि सच सामने आए।
उम्मीद अब भी ...
झीरम घटना में 25 मई 2013 को बस्तर के सबसे कद्दावर नेता महेन्द्र कर्मा सहित छत्तीसगढ़ के कई दिग्गज नेताओं ने जान गंवाई थी। जिन परिवार ने अपनों को खोया है उन्हें आज भी इस बात का मलाल है कि 11 साल में असली गुनाहगार पकड़ से बाहर है। एनआईए और एसआईटी जांच के अलावा स्थानीय पुलिस की जांच में भी क्या कुछ हुआ, इससे लोग अनभिज्ञ हैं। कुल मिलाकर झीरम कांड किसने कराया इसके पीछे किसका हाथ था और बड़े नक्सली लीडर जो इसमें शामिल थे वे क्यों पकड़ में नहीं आए, यह सवाल आज भी जनमानस के जहन में है।
नहीं के बराबर नक्सली मूवमेंट
बस्तर एसपी शलभ सिन्हा ने बताया कि, पिछले दो साल से झीरम इलाके में नक्सली मूवमेंट नहीं के बराबर है। कैंप खुलने और लगातार इस इलाके में फोर्स के सक्रिय रहने से नक्सली घटनाओं में कमी आई है। नक्सल प्रभावित गांव में विकास पहुंचा है इसलिए क्षेत्र में शांति का माहौल है। राष्ट्रीय राजमार्ग समेत दरभा ब्लाक के सभी नक्सल प्रभावित गांव में किसी तरह की नक्सलियों के मूवमेंट की जानकारी नहीं है।
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