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उस नेता की कहानी जो बिना चुनाव लड़े ही बना सीएम, रात में ली शपथ; लेकिन अमावस का जिक्र सुन चौंक गए

उस नेता की कहानी जो बिना चुनाव लड़े ही बना सीएम, रात में ली शपथ; लेकिन अमावस का जिक्र सुन चौंक गए




MP Assembly Election 2023 सीएम की कुर्सी और वो कहानी... में आज हम लेकर आए हैं मध्यप्रदेश के पहले मुख्‍यमंत्री का किस्सा जिन्‍होंने अमावस की घनघोर काली रात में शपथ ली। नेता बनने से पहले स्वतंत्रता संग्राम में आहुति दी। कई दफा जेल गए और तीन साल की सजा भी मिली। फिर दोस्‍त के लिए दे दी कुर्बानी। भोपाल से दिल्‍ली गए तो फिर कभी नहीं लौटे।

ऑनलाइन डेस्क, नई दिल्‍ली। सीएम की कुर्सी और वो कहानी... में आज हम लेकर आए हैं मध्यप्रदेश के पहले मुख्‍यमंत्री का किस्सा, जिन्‍होंने अमावस की घनघोर काली रात में शपथ ली। नेता बनने से पहले स्वतंत्रता संग्राम में आहुति दी। कई दफा जेल गए और तीन साल की सजा भी मिली। फिर दोस्‍त के लिए दे दी कुर्बानी। भोपाल से दिल्‍ली गए तो फिर कभी नहीं लौटे।

पढ़िए, मध्‍यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल की जिंदगी से जुड़े किस्‍से...

1 नवंबर 1956 ... कार्तिक अमावस की रात। उसी रात मध्‍यप्रदेश राज्‍य का गठन हुआ था। सूबे के पहले मुख्यमंत्री के तौर पर पंडित रविशंकर शुक्ल ने रात में ही शपथ ली थी। तभी किसी ने उन्हें याद दिलाया कि 'आज तो अमावस की रात है।'

1 नवंबर यानी जिस दिन मध्यप्रदेश का जन्म हुआ, उसी दिन 80 वर्षीय रविशंकर शुक्ल पुराने मध्यप्रदेश की राजधानी नागपुर से जीटी एक्सप्रेस में सवार होकर भोपाल पहुंचे थे। रास्ते में कई जगह उनका अभिनंदन किया गया। इटारसी रेलवे स्टेशन पर धूमधाम से स्वागत हुआ। भोपाल रेलवे स्टेशन पर पहुंचे तो जुलूस निकालते हुए उनको ले जाया गया।

शपथ लेते वक्त चौंक गए थे शुक्ल

स्वागत सत्कार के बीच जब शुक्‍ल राजभवन पहुंचे, तब रात हो चुकी थी। लालकोठी कहे जाने वाले आज के राजभवन में शपथ ग्रहण समारोह था। जब राज्यपाल डॉ. भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया पंडित रविशंकर शुक्ल को शपथ दिला रहे थे, तभी किसी ने याद दिलाया कि आज तो अमावस्या की रात है।

शपथ लेते शुक्ल पहले थोड़ा चौंके, असहज हुए और फिर बोले, '' पर इस अंधेरे को मिटाने के लिए हजारों दीये तो जल रहे हैं।'' संयोग से शपथ वाली रात दीपावली की रात थी।

सिर्फ दो माह रहे सीएम

अमावस की रात का कुछ असर था या नहीं, ये कौन जाने! लेकिन शपथ लेने के ठीक दो माह बाद 31 दिसंबर को शुक्ल का निधन हो गया। साथ ही शपथ वाली दीपावली उनकी जिंदगी की आखिरी दिवाली बन गई।

दरअसल, शुक्ल 1957 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए टिकट संबंधित बातचीत के लिए दिल्ली गए थे। वह 30 और 31 दिसंबर को जबलपुर से लोकसभा सदस्य सेठ गोविंददास के केनिंग रोड स्थित बंगले पर रुके थे। कहा जाता है कि तभी कांग्रेस हाईकमान ने 1957 के चुनाव में टिकट न देने की बात कही थी। कहा था कि किसी भी प्रदेश में राज्यपाल बनाकर भेजा जा सकता है।

दोस्‍त को सीएम बनाना चाहते थे शुक्‍ल

इसके पीछे की वजह यह थी कि उन्‍होंने उम्‍मीदवारों की सूची में अपने दोस्‍त द्वारका प्रसाद मिश्र का नाम भी लिख दिया था। कांग्रेस हाईकमान डीपी मिश्रा की बगावत और इसको लेकर के सख्त रवैये से वाकिफ था।

इसके बाद ही उनको कांग्रेस हाईकमान से जवाब मिला था कि न डीपी मिश्र को टिकट दी जाएगी और न अब आपकी सेवाएं ली जाएंगी। कहा जाता है कि शुक्‍ल अगले चुनाव के बाद अपने दोस्‍त डीपी मिश्र को सीएम बनाना चाहते थे।

भोपाल से सीएम गए और शव लौट

इसके बाद शुक्ल कांग्रेस के जंतर-मंतर स्थित मुख्यालय से सीधे कनॉट प्‍लेस पहुंचे, जहां वे अपने मित्र हरिश्चंद्र मारोठी के साथ दो घंटे तक घूमते रहे थे। इसके बाद लौटे तो हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई। अगले दिन उनका शव भोपाल लाया गया था। पंडित रविशंकर शुक्ल के बाद सबसे वरिष्ठ विधायक भगवंतराव मंडलोई को सीएम बनाया गया। फिर विधानसभा चुनाव हुए और कैलाश नाथ काटजू को मुख्यमंत्री बनाया गया।

राजनीति में आने से पहले शुक्ल

रविशंकर शुक्ल का जन्म 2 अगस्त, 1877 को सागर में हुआ था। रायपुर, जबलपुर और नागपुर से पढ़ाई-लिखाई की। फिर 1906 से वकालत शुरू कर दी। स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो वकालत छोड़कर गांधीजी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। आंदोलन के दौरान कई बार जेल गए। साल 1930 में तीन साल की सजा हुई।

अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना तय हुआ तो 1946 में शुक्ल मध्य प्रांत के मुख्‍यमंत्री बन गए और 1956 तक रहे। जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ, उस वक्‍त रविशंकर शुक्ल चारों राज्यों- मध्यप्रांत, मध्यभारत, विंध्यप्रदेश और भोपाल में सबसे सीनियर नेता थे। ऐसे में सर्व सहमति से उन्‍हें कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया। 1 नवंबर, 1956 को शुक्ल ने सीएम पद की शपथ ली।

एक किस्सा जिसे बताया जाता प्रेमचंद की कहानी जैसा

रविशंकर शुक्ल की जिंदगी से जुड़ा एक और किस्‍सा बड़ा ही चर्चित है, जिसकी तुलना प्रेमचंद की कहानी नमक के दारोगा से की जाती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक बार उन्हें गिरफ्तार कर सिवनी जेल ले जाया गया। ब्रिटिश सरकार हर बंदी से अंगूठे के निशान लेती थी। शुक्ल से भी अंगूठा लगाने को कहा गया। शुक्ल ने कहा- ''मैं राजनीतिक कैदी हूं, कोई चोर-उचक्का नहीं, जो अंगूठे की छाप दूं।''

उन दिनों आर एन पेंढारकर सिवनी के डिप्‍टी कलेक्‍टर हुआ करते थे। कलेक्टर साहब अंगूठे लगवाने पर अड़ गए। हाथापाई भी हो गई। जेल के 10-12 अधिकारियों ने मिलकर शुक्ल को पहले जमीन पर चित किया। फिर पेंढारकर शुक्ल की छाती पर चढ़कर बैठ गए, तब जाकर अंगूठे की छाप ले पाए। यह घटना चर्चा का विषय बन गई, लेकिन शुक्ल ने पेंढारकर को याद कर लिया।
शुक्‍ल ने दारोगा को दिया ये सिला

शुक्‍ल जब मध्य प्रांत के मुख्यमंत्री बन गए, तब उनके पास एक दिन डिप्टी कलेक्टरों के प्रमोशन की फाइल आई। फाइल में पेंढारकर का नाम देखते ही शुक्ल ने गृह सचिव सचिव नरोन्हा (तत्कालीन) को बुलाया। पूछा- क्या यह वही पेंढारकर है, जिसने सिवनी जेल में मेरी छाती पर चढ़कर अंगूठे की छाप ली थी?

गृह सचिव पूरा सच जानते थे, लेकिन करियर बर्बाद न हो जाए, इसलिए बोले- 'सर मैं उस वक्त सर्विस में नहीं था, इसलिए मुझे पता नहीं।' शुक्ल ने पेंढारकर से जुड़ी अन्य फाइलें मंगाईं और खंगाली। फिर गृह सचिव से कहा- 'ये वही आदमी है। अच्‍छा अफसर है। इसे तरक्‍की मिलनी चाहिए।'

पेंढारकर का प्रमोशन हुआ और वह डिप्टी कमिश्नर बने। बाद में जबलपुर नगर निगम के प्रशासक भी रहे। प्रेमचंद की कहानी नमक के दरोगा में सेठ अलोपिदीन अपमान को साइड रख दारोगा की ईमानदारी का इनाम जायदाद का मैनेजर बनाकर देते हैं।
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